नई दिल्ली: संगीत की दुनिया में कुछ आवाजें ऐसी होती हैं, जो समय, सरहद और संस्कृति की दीवारों को तोड़ देती हैं. नुसरत फतेह अली खान ऐसी ही एक आवाज थे. एक ऐसी शख्सियत जिन्हें ‘शहंशाह-ए-कव्वाली’ कहा जाता है. 13 अक्टूबर 1948 को पाकिस्तान के फैसलाबाद में जन्मे नुसरत ने सूफी संगीत को न सिर्फ जीवंत किया, बल्कि उसे वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दी. उनकी आवाज में जादू था, वह जुनून, वह रूहानियत, जो सुनने वाले को एक आध्यात्मिक सफर पर ले जाती थी. नुसरत साहब की कव्वालियां, ‘दम मस्त मस्त’, ‘अल्लाह हू’, ‘इक पल चैन न आए’, सिर्फ गीत नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार थी. उनकी गायकी में सूफियाना अंदाज और रागों की गहराई का ऐसा मेल था कि श्रोता खो जाता था. सैंकड़ों साल पुरानी कव्वाली परंपरा को उन्होंने नई पीढ़ी तक पहुंचाया और उसे पश्चिमी संगीत के साथ जोड़कर एक अनोखा रंग दिया.
‘बैंडिट क्वीन’ का यादगार किस्सा
नुसरत साहब की आवाज में ऐसा जादू था जो श्रोताओं को सीधे खुदा से जोड़ देता था. उनके ऊपर कई किताबें लिखी गईं, लेखक अहमद अकील रूबी ने अपनी किताब ‘नुसरत फतेह अली खान: ए लिविंग लेजेंड’ में उनके करियर से जुड़े कई किस्से शेयर किए हैं. इसमें उनकी कला के प्रति उनकी समर्पण और गहराई को दर्शाता एक किस्सा भी साझा किया गया है. यह किस्सा भारतीय फिल्म निर्देशक शेखर कपूर से जुड़ा है, जब वह अपनी फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ के लिए बैकग्राउंड स्कोर पर काम कर रहे थे.
शेखर कपूर के सामने रखी शर्त
फिल्म का विषय और सीन बेहद संवेदनशील थे, खासकर बेहमई नरसंहार और उसके बाद के महिलाओं के दर्द को दर्शाने वाले सीन. ऐसे दृश्यों के लिए एक गहरे, आध्यात्मिक और हृदय विदारक संगीत की जरूरत थी. इस काम के लिए नुसरत साहब को चुना गया. स्टूडियो में रिकॉर्डिंग के दौरान नुसरत साहब ने शेखर कपूर के सामने एक हैरान कर देने वाली शर्त रखी. उन्होंने कहा, ‘शेखर जी, आप अपनी फिल्म देखिए और मैं आपकी आंखों में देखकर गाऊंगा.’
करोड़ों दिलों में जिंदा है आवाज
शेखर कपूर ने उनकी बात मान ली. नुसरत साहब ने अपनी आंखें शेखर कपूर की आंखों पर टिका दीं. जैसे ही रिकॉर्डिंग शुरू हुई, एक अजीब सा सन्नाटा छा गया. शेखर कपूर ने महसूस किया कि नुसरत साहब महज धुन नहीं लगा रहे थे, बल्कि उनकी आत्मा को पढ़ रहे थे. शेखर कपूर उस क्षण में अपनी फिल्म के किरदारों, उनके दर्द और अपने व्यक्तिगत जीवन के गहरे रिश्तों को याद कर रहे थे. नुसरत साहब की आवाज में वह दर्द, वह तड़प और वह रूहानियत उतर आई थी जो उन दृश्यों की मांग थी. शेखर कपूर ने बाद में इस पल को याद करते हुए कहा था कि यह एक साधारण रिकॉर्डिंग सेशन नहीं था, बल्कि एक आध्यात्मिक संवाद था, जिसने संगीत के माध्यम से आत्मा को छू लिया. यह किस्सा इस बात का प्रमाण है कि नुसरत फतेह अली खान महज एक गायक नहीं थे. वह अपनी कला को किसी भी तकनीक या माइक पर निर्भर नहीं करते थे. उनका गायन भावनाओं, ऊर्जा और रूहानियत का सीधा प्रसारण था. 1997 में सिर्फ 48 साल की उम्र में नुसरत इस दुनिया से चले गए, लेकिन उनकी विरासत आज भी उतनी ही जीवंत है. उनकी रिकॉर्डिंग्स, उनके गीत और उनकी रूहानी आवाज आज भी लाखों दिलों में गूंजती है.
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