‘हमारे अच्छे दिन आ गए हैं… ‘ ‘मर्दानी सोच’ पर जावेद अख्तर का करारा प्रहार, सेंसर बोर्ड को भी लपेटा

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नई दिल्ली: सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं करतीं, यह समाज का आईना भी होती हैं जो फिल्मों के जरिये उसकी विसंगतियों को बयां करती हैं. हालांकि, आजकल के माहौल पर गीतकार जावेद अख्तर ने निराशा जताई है. दरअसल, उनका कहना है कि समाज की सच्चाई बताने वाली फिल्मों पर सेंसर रोकथाम लगाता है, जबकि अश्लीलता से भरी फिल्में आसानी से पास हो जाती हैं. जावेद अख्तर ने एक इवेंट में कहा कि एक खराब दर्शक ही एक खराब फिल्म को सफल बनाता है.

जावेद अख्तर ने इवेंट में कहा, ‘तथ्य यह है कि इस देश में अश्लीलता को अभी भी पास कर दिया जाएगा, वे नहीं जानते कि ये गलत मूल्य हैं, एक पुरुषवादी नजरिया जो महिलाओं को अपमानित करता है, असंवेदनशील है. जो पास नहीं होगा, वह समाज को आईना दिखाता है.’ पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, जावेद अख्तर ने कहा कि फिल्में केवल वास्तविकता को दर्शाने की कोशिश करती हैं. उन्होंने कहा, ‘फिल्म समाज की वो खिड़की है जिसके जरिये आप झांकते हैं, लेकिन खिड़की बंद करने से जो हो रहा है, वह ठीक नहीं होगा.’

दर्शकों पर ठहराया जिम्मेदार
जावेद अख्तर ने मानसिक सेहत पर फिल्मों के असर पर कहा कि ऐसी फिल्मों की लोकप्रियता समाज की अनुमति से जन्म लेती है जो पुरुषों की मेंटल हेल्थ की वजह से बनाई जा रही हैं. अगर पुरुषों का मानसिक स्वास्थ्य बेहतर हो जाए, तो ऐसी फिल्में नहीं बनेंगी और अगर बनेंगी भी, तो वे सफल नहीं होंगी. जैसे-धार्मिक लोग जब भी मुश्किलों का सामना करते हैं, वे कभी भगवान को दोष नहीं देते. इसी तरह, शो बिजनेस में दर्शक भगवान हैं. एक खराब दर्शक ही एक खराब फिल्म को सफल बनाता है. फिल्में समाज में हो रही घटनाओं का आईना होती हैं और उनके निर्माता अक्सर रुझानों के पीछे भागते हैं. वे केवल ऐसी ही फिल्में बनाते हैं.’

अश्लील गानों की सफलता से हुए निराश
जावेद अख्तर ने सिनेमा में अश्लील गानों पर भी निराशा जताई और कहा कि उन्होंने लगातार ऐसे प्रपोजल को ठुराया है क्योंकि वे उनके मूल्यों के साथ मेल नहीं खाते. वे बोले, ‘एक समय था, खासकर 80 के दौर में गानों का या तो दोहरा अर्थ होता था या कोई अर्थ नहीं होता था, लेकिन मैं ऐसी फिल्में नहीं करता था. मुझे इस बात का दुख नहीं है कि लोगों ने ऐसे गाने रिकॉर्ड किए और फिल्मों में डाले, लेकिन मुझे दुख है कि वे गाने सुपरहिट हो गए. इसलिए, यह दर्शक ही है जो फिल्म को प्रभावित करता है. जैसे, गाना ‘चोली के पीछे क्या है’, मैंने कई माता-पिता को गर्व के साथ कहते सुना है कि उनकी आठ साल की बेटी इस गाने पर नाचती है. अगर ये समाज के मूल्य हैं, तो आप गानों और फिल्मों से क्या उम्मीद करते हैं जो बनाई जाएंगी? इसलिए, समाज जिम्मेदार है, सिनेमा केवल एक आईना है.’

फिल्म सैयारा की तारीफ की
जावेद अख्तर ने फिल्म ‘सैयारा’ की तारीफ की, जिसमें इसके मधुर संगीत और पुरानी यादों का जादू था. इस रोमांटिक ड्रामा का निर्देशन मोहित सूरी ने किया था और इसमें दो नए एक्टर अहान पांडे और अनीत पड्डा हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसी फिल्म आती है और उसका संगीत, उसमें एक स्थिरता और पुराने समय का आकर्षण है. आज, संगीत इतना लाउड है जो आवाज को दबा देते हैं और आप शब्दों को मुश्किल से सुन पाते हैं. इसलिए, अगर ऐसी फिल्म आती है, जो शायद परफेक्ट न हो लेकिन आपको थोड़ी छाया देती है क्योंकि आप इस निर्दयी धूप से इतने थक गए हैं कि आपको अच्छा लगता है.’

‘अच्छे दिनों’ पर कसा तंज
जब जावेद अख्तर से पूछा गया कि क्या उदास कविता या गाने सुनने से कोई और ज्यादा उदास हो जाता है, तो वे बोले, ‘हां, दुख को झुठलाना सही नहीं है, वरना यह आपको कहीं और मार दबोच देगा. पहले, फिल्मों में एक या दो उदास गाने होते थे, लेकिन अब हमारे फिल्मों में ऐसे गाने नहीं देखे जाते क्योंकि ‘हमारे अच्छे दिन आ गए हैं’. इस तरह का इनकार बहुत हानिकारक है. अगर आप दुखी हैं, तो आप रोते हैं और उस दुख को स्वीकार करते हैं, उससे इनकार करना आपके मन को विकृत कर देगा.’



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